सिरसा के कई ऐसे इलाके है जहां कचरा बड़ी जगह में पसरा पड़ा है। इस कचरे की बजह से न जाने कितने चूल्हे जलते है इस बात का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है क्यों की कचरा हर शहर की पहचान होता है। इस कचरे ने न जाने कितने घर बनाए है। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले इस कचरे की वजह से अब ठाठ के मकानों में रहते है। कहीं कहीं पर तो इस कचरे ने तो कोठी तक बनवा दी है। यह सब होने के वावजूद तरकी के मैदान ने कई जानलेवा बीमारियों को भी जन्म दिया है और मौत के घाट भी उतारा है। कचरा बीनने की छोटी सी शुरूआत अब बड़े-बड़े व्यापारी बना रही है। अक्सर कचरा बीनने वाले नालियों और नालों में कीमती कचरे को ढूंढ़ते फिरते हैं पर आपने इन्हें नालों और गटर में कुछ ढूंढ़ते हुए बहुत कम देखा होगा। इन लोगों को देख कर लगता है जैसे हमारे समाज का हिस्सा नहीं है। इनकी कोई और ही दुनिया है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी इनके जीवन को सुधारा नहीं जा सका है। परंतु, अब वक्त आ गया है जबकि सरकार इस बात को गंभीरता से ले और इनके जीवन को सुधारे। पूरे सिरसा में ही क्यों अपितु पूरे प्रदेश में भी कचरे को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। यह प्रवृति तो अब पूरी विश्व व्यापि लगती है। आज कचरे को नष्ट करना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अगर सरकार इसे नष्ट करती है तो नष्ट करना गले की फांस बन सकता है क्योंकि कचरे को किसी भी तरीके से नष्ट किया तो ग्लोबल वार्मिंग होगी। पर अगर वक्त रहते इसको नष्ट नहीं किया तों इस कचरे की वजह से जो बीमारियां फैलेगी वो एक नहीं महामारी ला देगी। सरकार को इस मरज का विदेशों की तरह ऐसा तोड़ निकालना होगा जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। कचरा बीनने वाले भी हमारी ही तरह समाज के अंग हैं। आप उन्हें हर उस जगह पर पा जाएंगे जहां-जहां कचरा होगा। यह नहीं है कि वे उनमें भोजन ढूंढ़ते फिरते हैं पर यह जरूर है कि कहीं आधा खाया कोई सेब का टुकड़ा उन्हें बोनस के रूप में जरूर मिल जाता है। वे कचरों के ढेर में प्लास्टिक, कपड़े, लोहे आदि के टुकडे, डिब्बे तथा हर उस चीज को ढूंढ़ते फिरते हैं ,जिन्हें हम आप रोज ही बेकार समझकर फेंक देते हैं। सिरसा में कचरे के बड़े-बड़े ढ़ेरों पर बच्चों की टोली बड़ी खुशी से खेलती नजर आएगी। ये बच्चे कोई और नहीं बल्कि उन्हीं कचरा बीनने वालों की संतानें हैं। ऐसा नजारा सिरसा ही नहीं अपितु पूरे भारतवर्ष में देखा जा सकता है। शहर में मौजूद झुग्गी-झोंपडिय़ां टेड़ी नजर से तकती है। प्लास्टिक, कागज के गत्तों, टिन की चादरों, लकडिय़ों, पॉलीथीन शीट, टूटे ईट के टुकड़ों तथा मिट्टी के लेप से बनी झुग्गियों-झोपडिय़ों में रहने वाले यह लोग बहुत मुश्किल से गर्मी और वर्षा से अपनी रक्षा करते हैं। भीषण गरीबी, निरक्षरता, शोषण और कमाने के बेहद कम साधनों से गांव की गरीब आबादी बड़े शहरों की तरफ पलायन करती है। खूब भटकने के बाद अंतत: ये कचरा बीनने वालों की जमात में शामिल हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश छोटे बच्चे होते हैं जो अधिकतर सड़कों पर भटकने वाले, अनाथ, बेहद गरीब परिवार से और बिना किसी अन्य कमाई के जरिये वाले होते हैं। इनके लिए कचरा बीनना कमाई का बड़ा साधन है। अब आप यह सोच रहे हो कि यह तो बहुत ही आसान है तो विल्कुल गलत सोच है आपकी क्योंकि कचरा बीनना और उसे कबाड़़ी को बेचना भी आसान नहीं होता है। हर क्षेत्र की तरह यहां भी असली मेहनत तो ये बच्चे करते हैं, पर असली कमाई दलाल खा जाते हैं। आज कचरा बीनने का काम एक बड़ा व्यापार बन चुका है। कचरे अक्सर खुले में या सड़क किनारे फेंके जाते हैं, लेकिन कचरा बीनने वाले पुन: उपयोग में आने वाली हर उस वस्तु को उठा लेते हैं, जिसकी मांग होती है। इनमें से तो कुछ वस्तुएं शरीर के लिए अत्यंत ही नुकसानदायक होती हैं। ये अक्सर नंगे पैर, नंगे चेहरे व हाथ के साथ ही अत्यंत घातक और बीमारियों से युक्त कचरे के ढेर में दिन भर भटकते रहते हैं। इनमें से अधिकांश बच्चे या तो स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं या फिर अपने ही माता-पिता द्वारा जबरन कचरा बीनने लगा दिए जाते हैं। नन्ही-सी उम्र में ही उनके द्वारा कमाई गई छोटी रकम भी उन्हें बेहद बड़ी लगती है। ऐसे जबरन उनसे काम कराना नशे को दावत देना है। वे नाजुक उम्र में ही बीड़ी, सिगरेट व गुटखे आदि का सेवन के आदी हो जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन बच्चों के लिए समय-समय पर अनिवार्य शिक्षा के कानून बनते हैं, अरबों रुपये की योजनाएं बनती हैं तथा ढेरों वादे किए जाते हैं, वही बच्चे बेहद विपरीत परिस्थितियों में कचरा बीनने और अन्य क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। इतनी मेहनत करके भी उन्हें उनके हक का हिस्सा नहीं मिलता है। आज तक सरकार ने न तो इन बच्चों की सेवाओं के महत्व को स्वीकार किया है और न ही उन्हें किसी तरह की सुविधा मुहैया कराई गई है।
अगर सरकार उनके भविष्य के बारे में कुछ ज्यादा विचार विर्मश नहहीं कर सकती तो कम से कम इनका कचरा उद्योग ही चला दिया ताकि इन्हे कोई कचरा बीनने वाला न कहे बल्कि कचरा उद्योगपति कहे।