मिट्टी का कोई अंत नही

दीये से ज्यादा प्रकृति के सर्वाधिक निकट कौन होगा। मिट्टी का शुद्ध रूप। सादगी का शुद्ध रूप। और का भी शुद्ध रूप। अपने अकेले होने पर गर्व भी और पंक्ति से जुड़ने की चाह भी और यह दार्शनिकता भी कि जीवन क्षण है। मिट्टी को मिट्टी में मिल जाना है। तेल को जल जाना है और बाती को अंततः नष्ट हो जाना है। इसलिए जब तक हूँ रोशनी बिखेरूँ। प्रकाशित करूँ, सबसे पहले अपने आपको। फिर संभवतः आसपास भी प्रकाशित हो जाए। इस दीपावली के मौके पर मां ने दस रुपए के एक दर्जन के हिसाब से जब मिट्टी के नन्हे दीये खरीदे तो मेरे दादा जी घोर आश्चर्य से भर उठे। उन्होंने बताया कि हम तो अपने कस्बे में अपने शुरू-शुरू के वैवाहिक जीवन में चवन्नी के एक सौ दीये खरीदा करते थे। फिर काफी समय तक हम दो-तीन रुपए में सौ दीये खरीदते रहे। दस रुपए के एक दर्जन! आग लगी हुई है जैसे चीजों में। मैंने मन ही मन में सोचा, दादा जी को शहर की असलियत की कोई जानकारी नहीं। सिरसा शहर में पानी का गिलास आज पचास पैसे से लेकर एक रुपए में मिलता है, जबकि एक बोतल की कीमत है 13 रुपए। चवन्नी की शक्ल देखे तो काफी साल हो गए है। अब तो दस रुपए का इतना छोटा रूप हो गया है कि उसका सिक्का तक बाजार में दिखाई देने लगा है। तो दस रुपए के एक दर्जन दीये अगर घर बैठे मिल रहे हैं तो क्या आश्चर्य! आश्चर्य अगर है तो इस बात का कि आज भी मिट्टी के दीये और उन्हें बनाने वाले लोग भारतीय समाज में हैं, जिनके अस्तित्व की जानकारी हम शहरातियों को दीपावली जैसे त्योहारों के मौके पर होती है। मिट्टी का दीया आज भी अपनी सादगी और विनम्रता से हमें आलोकित कर जाता है। रोशनी की जलती-बुझती लड़ियों के बीच एक नन्हे दीये की काँपती लौ का सौंदर्य आज भी अलग और आकर्षित करने वाला लगता है, जैसे एक विनम्र कुम्हार ने अपनी समस्त विनम्रता के साथ सभ्यता के लिए एक अविष्कार किया हो। जैसे यह दीया न हो, खुशहाल पृथ्वी का मंगल-उपहार हो। एक अलग खुशबू बिखेरती हुई पकी मिट्टी, कपास से तैयार की गई शुद्ध रुई की बाती और तेल, जो पृथ्वी के प्यार के अलावा और क्या है? इसीलिए दीपावली पर एक दीप नहीं, दीपों की पूरी झिलमिल कतार प्रकाशित की जाती है। सिर्फ अपने ही नहीं, पड़ोसी के घर के बाहर भी दीया रखा जाता है। यह एक फूल की चाह की तर्ज पर एक दीप की चाह है। मुझे भी पंक्ति में लगा दो, ताकि पूरी पंक्ति का प्रकाश समूची मनुष्यता को जगमगा सके। कितनी सुंदर चाह है! हमें नहीं मालूम कि दीपावली क्यों मनाई जाती है। क्या सचमुच कोई राम हुए थे, जिनकी वनवासी पत्नी को किसी रावण ने छल-बल से चुरा लिया था, लंका पर राम की वानर सेना ने चढ़ाई की थी, रावण को मारकर सीता को छुड़ाया गया था और सकुशल अयोध्या लौटने की खुशी में नगर और राज्यभर में दीप जलाए गए थे। हमें नहीं मालूम कि इसमें लक्ष्मी पूजन कब और क्यों जुड़ा, कैसे यह त्योहार फैलकर करीब-करीब हफ्तेभर तक जा पहुँचा। धनतेरस, छोटी दीपावली, बड़ी दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज। हमें कुछ भी नहीं मालूम। हाँ, हम इतना जरूर जानते हैं कि जीवन में हर पल बदलाब होते रहते हैं। आदमी बदलता है, समाज बदलता है, देश बदलता है, दुनिया बदलती है और यहाँ तक पूरा ब्रह्मांड बदलता है। त्योहार और पर्वों का स्वरूप भी बदलता है। आज दीपावली पर पैसे की जैसी तड़क-भड़क है, रोशनियों का जैसा भौंडा प्रदर्शन है, पटाखों और आतिशबाजी का जैसा भयानक शोर और प्रदूषण है, ताश और जुए का जैसा बढ़ता आकर्षण है, वैसा तब न तो हुआ होगा न ही हो सकता होगा जब पहली बार दीपावली मनी होगी।
दिव्यांशी शर्मा

मेरे बारे में जान कर क्या करोंगे। लिखने का कोई शोक नहीं। जब लिखने का मन करता है तो बस बकवास के इलावा कोई दुसरी चीज दिखती ही नहीं है। किसी को मेरी बकवास अच्छी लगती है किसी को नहीं। नहीं में वे लोग है जो जिंदगी से डरतें है और बकवास नहीं करते। और मेरे बारे में क्या लिखू।

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