क्यों भूल जातें हैं जन्मदाता को ?

बुढ़ापा मानव के जीवन का आखिरी चरण है। यह वो समय है जब मनुष्य की बचपन की लापरवाही और जवानी की मौज-मस्ती सदा के लिए समाप्त हो जाती है। बूढ़े होना एक प्राकृतिक प्रकिया है और उम्र के बढ़ने से हर व्यक्ति बूढ़ा होता है। मगर यह जरूरी नहीं कि हर बुढ़ापा बुजुर्ग बन जाए। जब कोई व्यक्ति बूढ़ा होने के बाद भी अपने मन के अड़ियल घोड़े को लगाम नहीं डाल सकता। काम हमेशा क्रोध का गुलाम बनकर रहता है। व्यक्ति अंहकार और जिद्द का त्याग नहीं कर सकता और लोभ-लालच के चक्कर में फंसा रहता है तो वह बुजर्ग का पद नहीं पा सकता। बुजुर्ग बनने के लिए तो मन को मोड़ना और अंहकार को तोड़ना पड़ता है। इसके पीछे कारण यह है कि बुजुर्ग अवस्था मांग करती है सूझ -बूझ की, सब्र और शांति की, संयम और सहनशीलता की और दिमाग की। ना कि सड़ने व ईर्ष्या करने की। समझदार परिवार बुजुर्गो को अपनी शान समझतें है। बुजुर्ग लोग जहां दिशा प्रदान करते है वही अपनी सझदारी से परिवार की शांति बनाए रखतें है। घर में बैठा बुजुर्ग चाहे वह माता-पिता के रूप में, चाहे वह दादा-दादी, नाना-नानी या किसी अन्य रूप में हो। वो घर की छत की तरह होते है। सारे परिवार के लिए शांति और सुरक्षा का एहसास होता है। बच्चो के लिए तो दादा-दादी से अच्छा मित्र हो ही नहीं सकते। बुजुर्गो का मान-सम्मान सबसे अच्छी पूजा, उनकी सेवा-सम्भाल सबसे अच्छा तीर्थ और उनका आशीर्वाद परमात्मा की कृपा माने जाते है। उन्होने अपने जीवन में सभी रंग देखे होते है। सुख-दुःख और लाभ-हानि सहन किए होते है। इस अनुभव के कारण ही उनकी हर सलाह अधिक वजनदार और व्यवहारिक होती है और उनका सुक्षाव वेकार नहीं जाता है। कितने दुःख की बात है कि आज इस स्वार्थवादी और तेज़ रफ्तार युग में बुजर्गों के प्रति लापरवाही बर्ती जा रही है, बल्कि उनको कबाड़ समझा जा रहा है। यह सोचने की कोशिश ही नहीं की जाती कि जिन्होने हमें जन्म दिया और जिन्होने हमारी परवरिश की है उनकी देखभाल कौन करेगा ? लालची और स्वार्थी होकर बच्चे उनकी जमीन अथवा जायदाद को जल्द से जल्द हड़पना चाहते है। मगर उन्हे सम्भालेगा कौन ? इसके बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते। और तो और बुजुर्गों के पास बैठकर सुख-दुःख के लिए समय भी नहीं निकाल सकते । बहुत लाड-प्यार और मुश्किलों से पाले गए बच्चे ही उनसे बेगानों जैसा व्यवहार करते है। कुछ लोग पीछा छुड़वाने के लिए उनको वृद्ध आश्रम में छोड़ देते है या कहीं और दर-दर भटकने के लिए मजबूर कर देते है। शायद वह यह भूल जाते है कि एक दिन वह भी बूढ़े होगें और उनके साथ भी उनके बच्चे ऐसा ही व्यवहार कर सकतें है। हमारे लिए यह समझ लेना जरूरी है कि जिन घरों में बुजगों का निरादर किया जाता है वह तहज़ीब और मान-मर्यादा से वंचित होते है और उसको अपनों में भी सुख-शांति प्राप्त नहीं होगी। इसलिए तो कहा जाता है कि जिस घर में बुजुर्गों का सम्मान नहीं वहां जवानी को भी जीने का अधिकार नहीं। कई बार बड़ी उम्र या किसी शारिरीक अथवा मानसिक पीड़ा के कारण बुजुर्ग चिड़चड़े हो जातें है। पर यह उनकी मज़बूरी होती है। ऐसी अवस्था मे हमारा अथवा बच्चों का फर्ज बनता है कि वह संयम और सहनशीलता से काम लेते हुए उनको खुश और संतुष्ट रखने का प्रयास करें। मनोविज्ञानिक कहते है कि एक बुजुर्ग को सबसे अधिक खशी उस समय महसूश होती है जब उसका परिवार उस के साथ खुल कर बातें करें। हम अपने घर में बुजुर्ग के सम्मान की ही नहीं अपितु उन सभी बुजुर्गो के सम्मान की बात करतें है जिनसे समाज में रहते हुए सम्पर्क रहता है और उनको बनता सम्मान देना हमारा पहला फर्ज बनता है।
दिव्यांशी शर्मा

मेरे बारे में जान कर क्या करोंगे। लिखने का कोई शोक नहीं। जब लिखने का मन करता है तो बस बकवास के इलावा कोई दुसरी चीज दिखती ही नहीं है। किसी को मेरी बकवास अच्छी लगती है किसी को नहीं। नहीं में वे लोग है जो जिंदगी से डरतें है और बकवास नहीं करते। और मेरे बारे में क्या लिखू।

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